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हमारे अस्तित्व का एकमात्र सत्य' है, आत्मा - आदि शंकराचार्य
भगवद गीता के दूसरे अध्याय के निम्नलिखित श्लोक के माध्यम से इसे समझते हैं, जायते म्रियते वा कदाचि नायं भूत्वा भविता वा न भूयः | अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे | अर्थात यह आत्मा न कभी जन्मती है और न मरती है तथा यह उत्पन्न होकर फिर न उत्पन्न होनेवाली है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरती। उपनिषदों में जगत के आधार या मूल तत्व को लेकर कई प्रश्न हैं। सबसे पहले ‘ब्रह्म’ की चर्चा है और ब्रह्म को सूक्ष्मतम माना गया है, लेकिन ‘बृहति बृहति, इति बृह्म’ कह कर इसे अत्यंत विस्तारित भी बताया गया है। जिस तरह विज्ञान की दृष्टि में प्रकृति में उपलब्ध सारे तत्व कभी नष्ट नहीं होते, अपितु भौतिक या रासायनिक परिवर्तन से उनके रूप और लक्षण में परिवर्तन आ जाता है, उसी तरह शरीर का स्थूल रूप मृत्यु होने पर कार्बन और अन्य तत्वों में बदल जाता है तथा शरीर में बसने वाले मन और भावना को संचालित करने वाला सूक्ष्मतम तत्व ब्रह्म, जिसे आत्मा भी कहा गया है, वह भी अपना आवरण बदलता है। चूंकि आत्मा सूक्ष्म तत्व है, और वह दिखाई नहीं देता, अत: इसके परिवर्तित स्वरूप का भान हमें नहीं हो पाता । तैत्रिय उपनिषद में आत्मा के संबंध में कहा गया है, ‘अनयो अंतर आत्मा विज्ञानमय:’ अर्थात विज्ञानमय शरीर के अंतर में आत्मा का सूक्ष्म रूप है, जो शरीर से मुक्त भी होता है। इसका वर्णन शास्त्रों में भी है और इसे शिव का उदहारण देकर समझाया गया है| शास्त्रों में शिव को ‘आत्मात्वम गिरिजा मति:’ कहा गया है, अर्थात शव में शक्ति के प्राणयुक्त होने पर ही वह शिव होता है और यही आत्मा का स्थान है। जिस तरह किसी धातु की हम इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और नाभिक के बगैर कल्पना नहीं कर सकते, उसी तरह शरीर की भी कल्पना आत्मा के बगैर नहीं कर सकते। सांस को हम महसूस कर सकते हैं, देख नहीं सकते, लेकिन हम बहुत अच्छे से जानते हैं कि सांस के बगैर हम जीवित नहीं रह सकते। उसी तरह आत्मा को भी हम देख नहीं सकते, लेकिन हम अपनी भावनात्मक और मन:स्थिति पर ध्यान रखें तो अपने भीतर इसे महसूस कर सकते हैं। जहाँ वेदांत में इसे ब्रह्म कहा गया है वहीँ योग और सांख्य में इस आत्म तत्व को पुरुष कहा गया है |
अगर बात करें सांख्य दर्शन की तो इसमें मूल रूप से दो तत्वों को वर्णन है, प्रकृति एवं पुरुष। इस पुरुष को ही आत्मा भी कहा जाता है। इसे इस प्रकार बताया गया है कि, पुरी क्षेते इति पुरुष अर्थात वह जो शरीर के भीतर सोया हुआ है| चैतन्य इस पुरुष का गुण नहीं अपितु स्वभाव है। इसकी चेतना शक्ति से ही सब कुछ विद्यमान है अन्यथा सब कुछ व्यर्थ है या यूँ कहे अचेतन है| दूसरा तत्व, जगत को उत्पन्न करने वाली प्रकृति है। पुरुष सदा प्रकृति की लीला देखते हुए साक्षी के रूप में विद्यमान रहता है। सुख-दुख शरीर और मन के धर्म है, आत्मा के नहीं। वस्तुतः हमारी आत्मा जिसे पुरुष कहा जाता है को छोड़ कर संसार में सब कुछ उत्पन्न हुआ है और सब का मूल कारण प्रकृति है। किंतु पुरुष अर्थात आत्मा जगत की वस्तुओं के समान नश्वर, अनित्य, सापेक्ष, परतंत्र ना होकर यह अनश्वर, नित्य, निरपेक्ष एवं स्वतंत्र है।
इस आत्म तत्व का संबंध शरीर के आरोग्य से भी है और इसलिए नेचुरोपैथी में हमें इसका अध्ययन आवश्यक है| जब आत्मा कि चेतन शक्ति का प्रचंड उद्भव होता है, तो हमारे स्वास्थ्य से संबंधित समस्याओं के उपचार में ये एक प्रतीक्रिया कि तरह काम करती हैं और स्वास्थ्य के लिए यह एक अंदरूनी शक्ति प्रदान करती है| किसी भी प्रकार कि चिकित्सा में इस शक्ति का महत्व बहुत ही ज्यादा है, क्यूंकि इस शक्ति के अभाव में चिकित्सा पद्धति पुरी तरह काम नहीं कर पाती| पश्चिमी चिकित्सा पद्धति में इसे एलेन वाइटल के नाम से संबोधित किया गया है परन्तु ये आत्मा का एक अधुरा वर्णन है, क्यूंकि आत्मा इससे भी आगे और बहुत आगे है| मेडिकल साइंस के सरल शब्दों में इसे इम्युनिटी या प्रतिरोधक क्षमता समझा जा सकता है| एक उदहारण के रूप में इसे समझते हैं| यदि कोई बीमार व्यक्ति जो नाना प्रकार के इलाज करवा रहा है, जब यह विचार करना शुरू कर दे कि मेरा इलाज सही तरीके से चल रहा है, मेरा उपचार पर्याप्त ढंग से हो रहा है, मेरा रोग दिन प्रतिदिन घटता जा रहा है, और मैं अपने अन्दर एक नयी स्फूर्ति और चेतना का अनुभव कर रहा हूँ, तो इन विचारों का प्रभाव उसके शरीर पर पड़ेगा और उसके स्वास्थ्य में धीरे धीरे सुधार होने लगता है| इस सकारात्मक विचार, इम्युनिटी पॉवर, एलेन वाइटल को ही बृहद रूप में हम आत्म तत्व कह सकते हैं, हालाँकि इसका वास्तविक स्वरुप अत्यंत सूक्ष्म है|
Wed Sep 6, 2023